५३ बुद्ध की प्राचार-सम्बन्धी श्राशाएं दान दिया। ब्रह्मदत्त ने उसके पिता की सेना और रथ, उसका राज्य, उसका कोश और भण्डार सब उसे लौटा दिया। "हे भिक्षओ! जब उन राजाओं में इतना धैर्य और दया है, जो राजछत्र और तलवारधारण करते हैं,तो हेभिक्षओं, कितनी अधिक धीरता और दया तुममें होनी चाहिए। तुमने इतने उत्तम सिद्धान्तों और शिक्षा के अनुसार पवित्र-जीवन ग्रहण किया और धीर तथा दयालु देखे जाते हो जिससे तुम्हारा यश संसार में प्रसिद्ध है।" परन्तु केवल धैर्य और दया ही की नहीं वरन् पुण्य और भलाई के कार्यों की भी शिक्षा गौतम ने अपने अनुयाइयों को बारम्बार ज़ोर के साथ दी है। उस महान् पुरुष के उत्तम और फलहीन शब्दों के अनुसार जो कार्य नहीं करता, वह उस सुन्दर फूल की तरह है, जो रंग में तो बड़ा उत्तम परन्तु सुगन्धिरहित है। पाप न करना, भलाई करना, अपने हृदय को शुद्ध करना, यही बुद्धों की शिक्षा है। इसी प्रकार भलाई करनेवाला जब संसार को छोड़कर दूसरे संसार में जाता है, तो वहाँ उसके भले कर्म उसके सम्बन्धी, और मित्रों की भांति उसका स्वागत करते हैं। वह मनुष्य बड़ा नहीं है जिसके सिर के बाल पक गए हों, जिसकी अवस्था बड़ी होगई हो, प्रत्युत वह वृथा ही वृद्ध कहलाता है; वह मनुष्य जिसमें सत्य, पुण्य, प्रीति, आत्मनिरोध और संयम है और जो अपवित्रता से रहित तथा बुद्धिमान है, वही बड़ा कहलाने योग्य है।
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