पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/२९८

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नालन्दा विश्व विद्यालय किसी राजा के मन्त्री "कुक्कटसिद्धि” ने एक और मन्दिर का नर्माण किया। एक समय जब उसमें धर्मोपदेशा हो रहा था, दो दरिद्र तीर्थक वहाँ आ पहुँचे । कुछ दुष्ट चंचल भिक्षुकों ने उन पर अशुद्ध जल फेंककर उनका अपमान किया। इससे वे ऋद्ध हो गये । तदुपरान्त बारह वर्ष तक सूर्य की उपासना करके उन्होंने एक यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ किया और महाविहार के मन्दिरों आदि पर यज्ञादि के धधकते हुए चैले और अंगारे फेंककर उन्हें भस्म कर डाला। खुदाई में जो मन्दिर आदि निकल रहे हैं, उनमें जलाये जाने का स्पष्ट प्रमाण मिल रहा है। बालादित्य के शिला- लेख से भी इस बात की सत्यता सिद्ध होती है । उस शिलालेख में अग्निदाह के बाद एक मन्दिर के मरम्मत किये जाने का उल्लेख है। नालन्दा में प्राप्त जले हुए चावल के कण भी इस बात की स्पष्ट सूचना देते हैं । सम्भव है कि चावल के इन कणों में हुएन- संग द्वारा प्रशंसित उस 'महाशील' चावल के कण भी हों, जो उसे अन्यान्य वस्तुओं के साथ प्रति दिन मिलता था । उस चावल के कण भी पुष्ट होते थे। भात तो बहुत ही सुगन्धित और चमकीला होता था। वह चावल केवल मगध में ही होता था और राजा-महाराजाओं तथा धार्मिक महात्माओं को ही मिलता था । इसी लिये उसका नाम "महाशील" पड़ा था। उपसंहार नालन्दा-महाबिहार के उदय और अस्त की कहानी संक्षेप में