बुद्धीर चौडा , रतों को पुष्ट और सुडौल ईंट ऐसी सुपड़ता से चिनी गई है कि कहीं-कहीं तो उनकी दरज तक नहीं मालूम होती। नालन्दा के छात्रावाम और कमरे श्रादि देखने से सचमुच ही आजकल के प्रसिद्ध विद्यालय भी फीके से लगते हैं। कहीं-कहीं मंचादि की भित्तियों पर पेसी सुन्दर चिन मूर्तिकारी है कि देखते ही बनता है। कहीं युद्ध के जातक के कथायों की बातें अंकित हैं, कहीं शिव और पार्वती की प्रतिकृति, कहीं बाजा बजाती हुई किन्नारियाँ, कहीं गजलक्ष, कहीं अग्नि, कहीं कुबेर, कहीं संकटाकृत आदि । एक वृहतस्तूप के भूमिस्पर्श मुद्रा में बुद्धदेव को एक भव्य विशाल मूर्ति है। यह प्राकार में शायद बौद्ध-गया की मूर्ति के लगभग होगी। यहाँ के लोग उसे आजकल बटुक भैरव की मूर्ति समझते हैं और उसकी पूजा करते हैं । यहाँ इमारतों पर जो कतिपय बुद्ध-मूर्तियाँ गसाले की बनी हैं। वे इतनी भावपूर्ण हैं कि उनका शब्द-चित्रण असम्भव-सा है । बुद्ध के प्रशान्त भव्य मुख-मण्डल पर दया, करुणा और दिव्य सौन्दर्य की जो अभिव्यक्ति शिल्पी ने की है, उनके विमल और ध्यानस्थ नेत्रों से जो आमा, आर्द्रता, गम्भीरता, एकाग्रता एवं विश्व-वेदना उसने टपकाई है, उसके दर्शन करके किसका हृदय पवित्र एवं निष्पंक न हो जायगा । यहाँ की प्रस्तर मूर्तियाँ भी ऐसी सुन्दर हैं। और छोटी-छोटी धातु-प्रतिमाओं में तो पावन लोकोत्तर भावों की व्यंजना में तो कलावन्तों ने कमाल कर दिया है । अंगप्रमाण (एनाटोमी) की जो पाश्चात्य परिभाषा है. उसका चाहे इन मूर्तियों में प्रभाव हो, किन्तु भाव और कल्पना
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