नालन्दा विश्वविद्यालय उनका चरित्र शुद्ध और जीवन तपस्यामय था । छात्रावास की कोठरियों में उनके सोने के लिये जो पत्थर के मंच बने हुए हैं वे इस ढग के हैं कि उन पर शायद ही कोई सुख की नींद सो सके ? निश्चय ही वे जान-बूझकर ऐसे बनाये गये थे। उनसे यह स्पष्ट विदित होता है कि वहाँ विद्यार्थी जीवन में 'श्वान-निद्रा' के आदर्श का किस प्रकार पालन किया जाता था । संघाराम की एक-एक कोठरी में एक-एक विद्यार्थी के रहने का प्रवन्ध था। उसीमें उनकी चीजें रखने तथा सान की भी व्यवस्था थी । विद्यालय में ऐसे सौ मंच बने हुए थे, जिन पर गुरु बैठकर शिष्यों को शिक्षा देते थे। वाद-विवाद के लिये बड़े-बड़े कमरे बने हुए थे, जिनमें दो हजार भिक्षु एक साथ बैठ सकते थे। ज्योतिर्विद्या की पढ़ाई के लिये ऊँचे- ऊंचे मानमंदिर बने हुए थे। , विद्यालय के आय-व्यय आदि का प्रबंध वह विशुद्ध निःशुल्क शिक्षा थी। बिना किसी तरह के खर्च के ही विद्यार्थियों की दैनिक आवश्यकतायें पूरी हो जाती थीं। हुएन- त्संग ने लिखा है कि देश के तत्कालीन राजा ने एकसौ गाँवों का कर विद्यालय के लिये अलग कर दिया था । यह राजा सम्भवतः "हर्ष ही होगा। हर्प के सम्बन्ध में हुएनत्संग ने लिखा है- "जब हर्ष ने संघाराम में बुद्ध-प्रतिमा बनवाने का निश्चय किया, तब उन्होंने कहा, मैं अपनी भक्ति प्रदर्शित करने के लिये प्रति दिन संघ के चालीस मिनुकों को भोजन कराऊँगा । इसके अतिरिक्त उक्त
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