२६६ नालन्दा विश्वविद्यालय तत्कालीन कुलपति प्रधानाचार्य शील भद्र' तो सभी विषयों के पार- दर्शी थे । हुएनत्संग ने यहां आकर इन्हीं का शिष्यत्व ग्रहण किया था । पुनः इत्सिङ्ग के विवरण से पता चलता है कि यहाँ शिक्षा के दो विभाग थे। प्राथमिक और उच्च । प्राथमिक शिक्षा में सब से पहले व्याकरण पढ़ना पड़ता था। उसके बाद क्रम से हेतुविद्या, अभिधर्म कोष और जातकर का अध्ययन करना पड़ता था। इस प्रकार प्राथमिक शिक्षा समाप्त कर लेने पर विद्यार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण करने के योग्य होते थे। तब उन्हें विद्वान अध्यापकों के साथ सम्भाव्य प्रश्नों पर शाखार्थ करके ज्ञानार्जन करना पड़ता था। इस तरह जब उनकी शिक्षा समाप्त हो जाती थी तब वे राजसभा में जाते थे वहाँ अपनी विद्वत्ता का परिचय देकर किसी राजकीय पद पर नियुक्त होते अथवा भूमि आदि का दान पाते थे । प्रखर प्रतिभा वाले विद्वानों की स्मृति-रक्षा के लिये उनका नाम प्रमुख एवं उच्च द्वारों पर धवल वर्षों में अङ्कित कर दिया जाता था। परन्तु जिन लोगों की प्रवृत्ति अधिक विद्या प्राप्त करने की होती थी, वे और काम न करके अपने अध्ययन का क्रम पूर्ववत रखते थे। उन्हें वेदों और शास्त्रों का भी अध्ययन करना पड़ता था। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध आदर्श था । परस्पर वार्तालाप में गुरुषों से शिष्यों को निरन्तर अमूल्य उपदेश मिला करते थे। हुएनत्संग ने लिखा है कि सारा दिन ज्ञान-चर्चा और वाद-विवाद तथा गूढ़ प्रश्नों के समाधान में वीतता था।
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