२५ बुद्ध के धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तः बुद्ध के मत में, दुःख के स्वरूप प्रधानतः जरा, व्याधि और मरण हैं। जन्म से ही ये विविध दुःख उत्पन्न होते हैं। इसलिए जन्म भी दुःख के अंतर्गत है, यही दुःख है । इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता, यह प्रत्यक्ष सत्य है। इसलिए बुद्ध-देव ने इनका नाम 'आर्य सत्य चतुष्टय' रक्खा है। कहा है:- "इदं थी पन भिक्खवे दुक्खं अरिय सच्यम, जातिपि दुक्खा, जरापि दुक्खा, व्याधिपि दुक्खा, मरणंपि दुक्खम् (महावग्ग १-६-१६) "भिक्षुगण, यही दुःख है--यह आर्य-सत्य-परम सत्य है। जन्म भी दुःख, जरा भी दुःख, मृत्यु भी दुःख और व्याधि भी दुःख ।" बुद्धदेव की दूसरी बात यह है कि इन दुःखों का कोई कारण अवश्य है। कारण न होता तो इनकी उत्पत्ति ही न हो सकती, यह बात भी माननीय है । अतएव दुःख का कारण भी एक आर्य सत्य है। उनकी तीसरी बात है दुःखों का निरोध-अर्थात् निवृत्ति, यह भी आर्य सत्य है। उनकी चौथी बात है दुःखों के निरोध का उपाय-यह भी एक आर्य-सत्य है। उपर्युक्त वक्तव्य से स्पष्ट है कि बुद्ध का धर्म दुःखवाद से प्रारंभ होता है। हम पीछे सांख्य के प्रकरण में लिख चुके हैं कि बुद्ध-मत का आधार अधिकांश में कपिलमत पर निर्भर है। क्योंकि कपिल के सांख्य का भी मूल यही है । किस तरह दुःख की निवृत्ति होगी, सांख्य यही बताने को-प्रवृत्तं हुआ है।
पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/२८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।