बुद्ध और बौद्ध-धर्म २६२ है कि उसके भव्य-भवनों का निर्माण श्रेय एक के बाद दूसरे इस प्रकार छः राजाओं को प्राप्त है। देश के अधीश्वर (हप) ने उसके लिये एक सौ ग्रामों का कर प्रदान किया था। हानच्चांग ने उसके विशाल एवं कई मंजिलों वाले भवनों की अत्यधिक प्रशंसा की है, उन भवनों के शिखर-बहुमूल्य रत्नों से जंटित और ऊपरी प्रकोष्ठ गगनचुम्बी थे। नालन्दा विश्व-भारती में कई सहस्र छात्र विद्यो- पार्जन करते थे। उनमें से बहुतेरे छात्र तो अपनी पिपासा को तृप्त करने तथा अज्ञान जनित अन्धकार को दूर करने के लिये विदेशों से आते थे। वे अपने संघ के प्राचार और नियमों के पालन में बड़े कट्टर होते थे, इसलिये अखिल भारतवर्ष में आदर्श माने जाते थे। अध्ययन एवं शास्त्रार्थ में वे इतना व्यस्त रहते थे कि दिन कब बीत गया, इसका उन्हें ज्ञान तक न होता था। अहर्निश शाख चर्चा से उनकी ज्ञानक्षुधा उत्तेजित हुआ करती थी। उच्च तथा निम्न श्रेणी के "भ्रातृगण" परस्पर के सहयोग से विद्या प्राप्त करने में सर्वथा सफल होते थे। वे महायान तथा अष्टादश बौद्ध- साम्प्रदायों के ग्रन्थों का भी अध्ययन करते थे, यही नहीं किन्तु साधारण, पुस्तकों, वेदादि, हेतु विद्या शब्द विद्या, चिकित्सा- विद्या, इन्द्रजाल विद्या, अथर्ववेद तथा साँख्यादि के अतिरिक्त वे "अन्यान्य ग्रन्थों, का भी अवलोकन तथा पाठ करते थे। इससे यह स्पष्ट है कि नालन्दा-विद्यापीठ का उद्देश्य विद्यार्थियों को केवल प्राचीन रूढ़ियों एवं परम्पराओं की शिक्षा देना न था, किन्तु विशेषकर उसका लक्ष्य छात्रों में बौद्धिक और आत्मिक:ज्ञान-
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