२६१ नालन्दा विश्वविद्यालय " नहीं कि उन्होंने कन्नौज राज्य को चतुर्दिक विस्तृत किया और बौद्ध-धर्म में पुनः जागृति उत्पन्न की, इतिहास में उनकी ख्याति का मुख्य कारण यह भी है कि उनकी नीति बहुत ही उदार और हितकारी थी-उन्होंने विद्वानों का सम्मान बढ़ाया, अपनी प्रजा में शिक्षा का प्रचार किया। प्रसिद्ध चीनी यात्री "हुएनच्चांग के अनुसार हर्ष, भूमि-कर का चतुर्थाश तत्कालीन उच्च-कोटि के विद्वानों, ग्रन्थकर्ताओं तथा धार्मिक नेताओं को पुरस्कृत करने के लिये पृथक् रखते थे। इस प्रकार राजा से प्रतिष्ठा पाकर उन लोगों के उत्साह की वृद्धि होती थी-वे दत्तचित्त होकर पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने ही में अपना कालक्षेप करते थे। जिसका उल्लेख 'हुरली'- रचित हानच्चांग के जीवन-चरित्र से यह भी विदित होता है कि हर्षने जयसेन के पांडित्य से प्रसन्न होकर उसको उड़ीसा के अस्सी नगरों का कर प्रदान किया था । किन्तु धन्य है जयसेन का आत्मत्याग कि उसने इस प्रचुर सम्पत्ति को भी अस्वीकृत कर दिया। उस समय जयसेन की कीर्ति पताका, उसकी विद्वत्ता और धर्मनिष्ठा के कारण समस्त बौद्ध-संसार में फहरा रही थी। 'हर्ष नालन्दा-विश्वविद्यालय के भी संरक्षक थे। वहाँ पर उन्होंने एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया, जो पीतल की चादरों से आच्छादित था। नालन्दा विश्वविद्यालय उस समय सब. विद्याओं का केन्द्र था। उसकी मर्यादा इतनी बढ़ी-चढ़ी थी कि उसके प्रति-उदारता प्रदर्शित करने के हेतु राजाओं में प्रायः प्रति- स्पर्धा हुआ करती थी। हुएनच्वाँग का जीवन चरित्र हमें यह बताता
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