बुद्ध और बौद्ध-धर्म २७८ . विचार हुआ कि इस मंन्दिर पर बौद्धों का अधिकार होना चाहिए। उन्होंने कोलम्बो में महा बुद्धसमिति स्थापित की और बहुत-सी लिखा-पढ़ी के बाद सरकार ने महा बौद्ध-समिति के मन्त्री को विश्रामागार के दो कमरों की तालियाँ दे दी और फिर वहाँ बौद्ध- भिनु रहने लगे और पूजा-अर्चना करने लगे । महन्तजी में और अनागरिक पाल में मेल हो गया । एक चाण्डाल कन्या मन्दिर के सहन को साफ किया करती थी। बौद्ध-भिन्नु रात-दिन मन्दिर में रहते थे और आराधना करते थे। इसके बाद एक बड़ी भारी सभा पटना में हुई और इस बात की कोशिश की गई कि इस मन्दिर को सर्वथा बौद्धों के आधीन कर लिया जाय। थोड़े ही दिनों मेंबूढ़े महन्तजी मर गये और नवीन महन्त गद्दी पर बैठे तो उनसे बौद्धों की अनबन होगई।" इस के बाद जापान में एक ७०० वर्ष पुरानी मूर्ति अनागरिक धर्मपाल को मिली । जिसकी स्थापना उन्होंने मन्दिर की दूसरी मजिल पर करने का विचार किया। लेकिन अनागरिक धर्मपाल का यह इरादा जव महन्त जी को मालूम हुआतो वह बड़े क्रोधित हुए और उनमें झगड़ा हुआ । परिणाम यह हुआ कि मुकदमा फौजदारी हो गया और उसमें महन्तजी के तीन चेलों को एक-एक महीने की सजा और १००-१०० रुपये जुर्माने का हुक्म हुआ। हाईकोर्ट में अपील दायर हुई तो यद्यपि अपराधियोंकी सजा बन्द हो गई परन्तु यह स्पष्ट रहा कि यह मन्दिर वौद्धों का हैं और इस परं वौद्धों ही का अधिकार रहना चाहिये ।
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