बुद्ध और बौद्ध-धर्म २५६ कट्टर बौद्ध था, इसलिये ब्राह्मणों पर किये गये उसके इस आरोप को मानते वक्त बहुत सावधानी से काम लेना चाहिये। इन वृत्तान्तों से ज्ञात होता है कि उस समय भारतत्र एक ही सम्राट् के अधीन अनेकों राज्यों में विभाजित था। हिन्दू और वौद्ध-धर्मावलम्बी दोनों ही राजा दोनों धर्म के पण्डितों का समान- रूप से सत्कार करते थे और इनमें वाद-विवाद प्रायः मित्र-भाव से होता था। उस समय बौद्ध लोग धार्मिक त्यौहारों पर उत्तर- कालीन हिन्दुओं की भांति धूम-धाम से उत्सव करते थे और बौद्ध- धर्म बिगड़कर मूर्ति पूजा में आ लगा था । बौद्ध-धर्म की उन्नति को देखकर ब्राह्मण लोग जलते थे और निरन्तर दो शताब्दियों के प्रयास के बाद उन्होंने बौद्ध-धर्म को परास्त किया। अयोध्या के विषय में वह लिखता है कि-"अयोध्या के राज्य का घेरा १००० मील का है और वह धन-धान्य, फल-फूलों से भरा हुआ है। यहाँ पर १०० सङ्घाराम और तीन हजार अर्हत हैं।" हयमुख राज्य में होते हुए हुएनत्संग प्रयाग या इलाहाबाद में आया । वह लिखता है-"इस राज्य का घेग तीन हजार मील है, यहाँ की पैदावार बहुत है । यहाँ के लोग सुशील, विद्याव्यसनी और कट्टर हिन्दू हैं । वे बौद्ध-धर्म का सत्कार नहीं करते ।” अन्त में उसने इलाहाबाद के उस बड़े वृक्ष का भी वर्णन किया है, जो आज भी यात्रियों को अक्षयवट के नाम से दिखाया जाता है। वह दोनों नदियों के संगम पर मरने वाले मनुष्यों का वर्णन करता है-"दोनों नदियों के संगम पर प्रति दिन सैकड़ों मनुष्य स्नान
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