२५३ , दो अकर चीनी बौद्ध भिक्षु मगध असभ्य आदिम वासियों का राज्य था, उस.समय पाँचालों ने अपनी सभ्यता में उन्नति की थी। यद्यपि मगध ने बिंवसार, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त तथा प्रतापी अशोक आदि राजाओं के समय में सर्वोच्चता प्राप्त की थी, किन्तु ई० सन् के कुछ ही शताब्दियों बाद कान्यकुब्ज ने पुनः अपना महत्व प्राप्त किया और वह गुप्त सम्राटों का प्रधान देश हो गया। शीलादित्य द्वितीय की सभा इसी कान्यकुब्ज में हुई थी। हुएनत्संग ने कान्यकुब्ज के राज्य के विषय में लिखा है कि- "इसका घेरा ८०० मील है। इसकी राजधानी ४ मील लम्बी और १ मील चौड़ी थी। नगर के चारों ओर खाई और आमने-सामने दृढ़ और ऊँचे बुर्ज थे । यहाँ के लोग सुखी और सम्पन्न थे। वे विद्या-प्रेमी, कुलीन, निष्कपट और सज्जन थे, कामदार और चमकीले वल पहिनते थे। उनकी शुद्ध भाषा की प्रसिद्धि बहुत दूर- दूर तक फैली हुई थी। ये लोग धर्म-विषय पर बहुत वाद-विवाद करते थे। यहाँ बौद्धों और हिन्दुओं की संख्या भी समान थी। बौद्धों के १०० संघाराम और १०००० पुजारी थे,हिन्दुओं के २०० मन्दिर और कई हजार पुजारी थे। अपने साधारण नियमाको छोड़ कर हुएनत्संग ने कान्यकुब्ज के इतिहास का वृत्तान्त लिखा है। वह कहता है कि-"कान्य- कुब्ज का पहिला राजा प्रभाकर वर्द्धन था, उसके बाद उसका बड़ा पुत्र राज्यवर्द्धन राजा हुआ, परन्तु सुवर्ण (बंगाल) के राजा शशांक (नरेन्द्र गुप्त) ने उसे हराकर मार डाला । उसके मन्त्रियों ने उसके
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