२४६ दो अमर चीनी बौद्ध भिक्षु होते हैं। वहाँ १००संघाराम और ५०० सन्यासी थे। काश्मीर में अब तक कनिष्क का यश फैला हुआ था। हुएनत्संग कनिष्क के विषय में लिखता है-"बुद्ध के निर्वाण के ४०० वर्ष बाद गान्धार का राजा कनिष्क राजगद्दी पर बैठा । उसके राज्य का यश दूर-दूर तक फैला । उसने दूर-दूर के देशों को अपने आधीन किया । इससे सिद्ध होता है कि कनिष्क अशोक के ३०० वर्ष उपरान्त अर्थात् ७८ ई० में हुआ। यह तिथि हमारी दी हुई तिथि तथा शाक्य सम्बत् से मिलती है। हुएनत्संग कनिष्क के समय में हुई उत्तरी-बौद्धों की सभा के विषय में लिखता है- "वहाँ ५८० अईत् एकत्रित हुए थे। उन्होंने तीन टीकाएँ बनाई- १-उपदेश शास्त्र-जिसमें सूत्रपिटक की एक टीका की है। २-विनय विभापा-शास्त्र-जिसमें विनयपिटक की टीका की है। ३-अभिधर्म विभाषा-शास्त्र-जिसमें अभिधर्मपिटक की व्याख्या है। वह कनिष्क के विषय में लिखताकि चीन के अधीनस्थ राजा इस भारत-सम्राट् के पास अपने विश्वासी आदमी भेजते थे। वह उनके साथ बड़े पादर का बर्ताव करता था। उसने उनके रहने के लिए रावी और सतलज के यीच का देश नियत किया था। चीनी लोगों ने भारत में नाशपाती और शातालू का प्रचार किया था। इसी- लिये शपतालू का नाम चीनानी और नाशपाती का नाम 'चीन राजपुत्र' रक्खा गया था ।" हुएनत्संग ने बौद्धों के शत्रु मिहिरकुल के विषय में लिखा है- "कुछ शताब्दि पूर्व मिहिरकुल ने रावी के पश्चिम साकल के नगर
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