बुद्ध और बौद्ध-धर्म २४० के लिये आते थे। यहाँ से वह पाणिनी के जन्म स्थान सलातुर में गया था। उद्यान अर्थात् काबुल के चौतरफ के देश के संघारामों को हुएनत्संग ने उजाड़ पाया । सिन्धु नदी को पार करके वह छोटे तिब्बत में पहुँचा । वहाँ के विषय में वह लिखता है-"वहाँसड़कें ऊँची-नीची और बहुत ही ढलुवाँ हैं, गुफाएँ अन्धकारमय हैं । कहीं रस्सों और कहीं फैले हुए लोहे के सिक्कड़ों द्वारा नालों को पार करना पड़ता है। खंदकों के आर-पार हवा में लटके हुए पुल हैं। हुएनत्संग तिब्बत से तक्षशिला और सिंहपुर में गया, जो कि काश्मीर राज्य के आधीन थे। सिंहपुर में उसे श्वेताम्बरी और दिगम्बरी लोग मिले । उनके विषय में लिखता है-"उनके सिद्धांतों के नियम अधिकांश बौद्ध-सिद्धान्तों से लिये गये हैं। अपने पूज्य- देव महावीर की मूर्ति को वे चोरी से तथागत अर्थात् बुद्ध की श्रेणी में रखते हैं। उसमें केवल कपड़े का भेद रहता है, सुन्दरता में वह बिल्कुल एक-सी होती है " हुएनत्संग का विचार था कि जैनियों का सम्प्रदाय कुछ बौद्धों के जुदा होने से बन गया है। वह लिखता है-काश्मीर का घेरा १४०० मील है और उसकी राजधानी ढाई मील लम्बी और एक मील चौड़ी है। यहाँ की जल- वायु ठण्डी और कठोर है । यहाँ के लोग भीतर चमड़े के कपड़े और ऊपर सफेद पटुए पहनते थे। वहाँ के लोग हल्के, तुच्छ, निर्बल और कायर स्वभाव के होते हैं। उनका चेहरा सुन्दर होता है, पर वह पक्के धूर्त होते हैं। पर वे विद्या प्रेमी और सुशिक्षित
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