बुद्ध और बौद्ध-धर्म २४४ . " गया को फाहियान ने उजड़ा पाया। उसने वहाँ बोधिवृक्ष और वुद्ध से सम्बन्ध रखनेवाले सब स्थानों को देखा । उसने बनारस में जाकर उस मृगदाय को देखा, जहाँ पहिले बुद्ध ने सत्य-धर्म को प्रकट किया था। उस समय वहाँ दो संघाराम बन गये थे। वहाँ से वह कौशाम्बी और बनारस होते हुए फिर पाटलिपुत्र को लौटा। वह विनयपिटक की हस्त लिखित लिपि की खोज में उत्तरी भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न स्थानों में घूमा, पर वहाँ ये आज्ञायें केवल मौखिक थीं। उसे कोई मूल ग्रन्थ न मिला । आखिर मध्य-भारत के एक बड़े, संघाराम में उसे आज्ञाओं का एक संग्रह मिला। गंगा के किनारे-किनारे फाहियान पूर्वी बिहार की राजधानी चम्पा में होता हुआ ताम्रपल्ली में आया, जोकि उस समय गंगा के मुंहाने पर एक बड़ा भारी बन्दरगाह था। वहाँ चौवीस संघाराम थे और उनमें रहनेवाले भिक्षु साधारणतः बुद्ध की आज्ञाओं का पालन करते थे। फाहियान ने यहाँ पर दो वर्ष तक ठहरकर पवित्र पुस्तकों की नकल की और मूर्तियों के चित्र उतारे। वहाँ से उसने एक सौदागरी जहाज में बैठकर लङ्का की ओर प्रस्थान किया। १४ दिन और १४ रात की यात्रा के उपरान्त वह लङ्का में पहुंचा। वह लिखता है-"लका में पहले कोई बस्ती नहीं थी। पहले-पहल वहाँ कुछ व्यापारी आकर बसे और धीरे-धीरे वह एक बड़ा राज्य हो गया। फिर बौद्धों ने वहाँ जाकर अपने धर्म का प्रचार किया। नगर के उत्तर की ओर ४७६ फीट ऊँचा एक बड़ा गुम्बज और एक संघाराम था, बहाँ पाँच हजार सन्यासी रहते थे।"
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