बुद्ध और बौद्ध-धर्म गंगा को पार करके फाहियान पाटलिपुत्र में आया, जिसे पहले 'अजातशत्रु ने अपने उत्तरी शत्रुओं के आक्रमण को रोकने के लिए बनाया था और जो फिर अशोक की राजधानी रहा । यहाँ. वह विशाल राजमहल था, जिसक' भिन्न-भिन्न भागों को अशोक ने देवों से पत्थर मंगवाकर बनवाया था। कहते हैं-इसकी दीवार, द्वार, नकाशो मनुष्य की बनाई हुई नहीं प्रतीत होती है। उसके खण्डहर अब तक अवशेप हैं। अशोक के गुम्बज के पास एक विशाल संघाराम था, जिसमें स्वयं गुरु मंजुश्री और सातसौ भिनु रहते थे। फाहियान ने यहाँ पर धूम-धाम से किये जाने वाले बौद्ध- विधानों का वर्णन किया है। वह लिखता है-"प्रति वर्प दूसरे मास के आठवें दिन मूर्तियों की एक यात्रा निकलती है। इस अव- सर पर लोग एक चार पहिये का रथ बनवाते हैं। उस पर वाँसों को बाँधकर उसे पाँच खण्ड का बनाते हैं। उसके बीच में एक- एक खम्भा रहता है, जो तीनफले भाले की तरह होता है और ऊँचाई में २२ फिट तथा इससे भी ऊँचा होता है । इस प्रकार यह एक मन्दिर की तरह दिखाई देता है । तब वह उसे एक बढ़िया श्वेत मलमल को भड़कीले रंगों से रँगते हैं। उसमें फिर देवों की मूर्तियों को सोने-चाँदी और काँच के आभूपण पहनाकर कामदार रेशमी चॅदोवे के नीचे बैठाते हैं। वह तब रथ के चारों कोनों पर ताखा बनाते हैं और उनमें बुद्ध की मूर्तियाँ बनाते हैं जिनकी सेवा में एक-एक बोधिसत्व खड़ा रहता है। इसी प्रकार के लगभग २० रथ बनाये जाते हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार से सजाये जाते हैं। इस
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