बुद्ध और बौद्ध-धर्म को उसके सेनापति ने मार डाला, इसका उल्लेख हम मगध के राजाओं के वर्णन में कर ही चुके हैं। चार वर्ण पूर्ववत थे । परन्तु चारों के मेल से वर्णसंकरों की अनेक जातियों बन गई थीं । चौद्ध ग्रन्थों में इन्हें हीन जाति या होन सिल्प (हीन शिल्प) कहा गया है, इसमें चमार, चटाई बनाने वाल, जुलाहे, कुम्हार आदि थे। चारों वर्षों में क्षत्रिय ब्राह्मणों की अपेक्षा श्रेष्ठ था। ज्ञान कॉड उनके हाथ में तथा कर्मकाँड ब्राहाणों के हाथ में था, फिर राजदण्ड उनके हाथ में था, फिर बौद्ध और जैन दोनों के आचार्य क्षत्रिय थे इसलिये इन दोनों वर्षों में चढ़ा-ऊपरी हो रही थी। बौद्ध साधुओं में राजकुमारों ने सम्मिलित होकर उनका महत्व बढ़ा दिया था। वर्ण त्याग साधारण बात थी।रोटी-बेटी के लिये वर्ण की कैद न थी, पर कुछ नियम थे। जातक ग्रन्थों में ऐसे बहुत उदाहरण हैं। स्मृतिकाल में यद्यपि ब्राह्मण सेवा कर्म को बुरा समझते थे, पर अशोक के काल में वे सेवा करते थे। मिस्त्री और बहेलिएका काम भी करते थे। ब्राह्मण क्षत्रियों का खान-पान और विवाह सम्बन्ध होता था। चाण्डालादि से विवाह करने वाले का सिर मूंड कर उस पर राख डाल दी जाती थी, और वह जाति से च्युत समझा जाता था। -
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