२२७ बौद्ध-काल का सामाजिक जीवन प्राकृतिक इग्विपयों के सम्बन्ध में इनके विचार बड़े स्थूल हैं, क्योंकि इन विचारों की उत्पत्ति कहानियों से हुई है। कई बातों में इनके विचार यवनों से मिलते हैं। यह भी सृष्टि को मादि और सांत (?) पृथ्वी को गोल और ईश्वर को व्यापक मानते हैं। इनका विश्वाम है कि कई मूल तत्व इस विश्व में काम कर रहे हैं, और सृष्टि जल-तत्व से हुई है। यह चार महाभूतों ( यवन दार्श- निक केवल क्षिति, अप, तेज और वायु को मानते थे ) के अति- रिक्त एक पाँचवाँ महाभूत (आकाश ) भी मानते हैं। पृथ्वी इस विश्व का केन्द्र है। प्लेटो की भांति ये लोग भी अपने मोक्षादि- सम्बन्धी सिद्धान्तों को रूपकों द्वारा प्रकट करते हैं। श्रमणों में जो लोग हिलोविनोई (?) कहलाते हैं, उनकी बड़ी प्रतिष्टा होती है। ये वनों में रहते हैं, पत्तियों और वनेले फलों को खाते हैं, और बाल के बने कपड़े पहनते हैं। ये ब्रह्मचारी होते हैं, और मद्य-पान नहीं करते । राजा लोग दूतों को भेजकर इनस घटनाओं के कारण पूछते हैं, और इन्हीं के द्वारा देव-पूजा करते हैं । हिलोविओई के पीछे वैद्यों का सम्मान होता है। ये लोग भी सादगी से रहते हैं, पर वनवासी नहीं होते। ये लोग जी का प्राटा और चावल खाते हैं। यह पदार्थ इनको बड़ी सुगमता से, माँगने मात्र से, मिल जाता है। अपने ज्ञान से यह सन्तान उत्पन्न करा सकते और यह बतला सकते हैं कि गर्भस्थ बच्चा लड़का होगा या लड़की । यह औपधि का प्रयोग तो कम करते हैं, पथ्य और भोजन का नियमित प्रबन्ध करके रोगी को अच्छा करते हैं।
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