त्रु द्ध और बौद्धधर्म २२२ भी अपना बहुतसा व्यापार-व्यवहार लेखबद्ध करना पड़ता था। चिट्ठी-पत्री की भी प्रथा थी,पर पुस्तके बहुत कम लिखी जाती थीं। ज्या वैदिक धर्मावलंबी, क्या बौद्ध, क्या जैन, सभी धर्म-पुस्तकों को कंठस्थ रखना ही अच्छा समझते थे। इससे संभव है, एक लाभ यह रहा हो कि पुस्तकें अनधिकारियों के हाथों में जाने से बच जाती हैं, कुछ ग्रह बात रही होगी कि प्राचीनकाल से यही दस्तूर चला आता था, जैसे श्राज कल छापा हो जाने पर भी हाथ की लिखी पुस्तकें श्रेष्ठ समझी जाती हैं, प्रत्युत अव भी विद्यार्थी उनको पूर्ववत् रट डालते हैं। इसमें उनके क्रमशः लोप हो जाने और प्रक्षिप्त अंशों के मिल जाने की आशंका थी। उस समय काराज नहीं था। शिला-लेखों और दान-पत्रों (जो सांन या ताँबे पर भी लिखे जाते थे) को छोड़कर काग़ज़ का काम भोज पत्र और पेड़ों की छालों से लिया जाता था। इनपर अक्षर खोद कर एक प्रकार की स्याही लगा दी जाती थी जिससे अक्षर स्पष्ट हो जाते थे। फिर छेद कर सव पत्र एक साथ वाँध दिए. जाते थे। पढ़ानेवाले यातो वैदिक धर्मावलम्बी ब्राह्मण थे या बौद्ध साधु, ब्राह्मण यथाशक्य द्विजातियों के अतिरिक्त औरों को न पढ़ाते रहे होंगे । वेदादि ग्रन्थों का तो सुन लेना भी शूद्रों के लिये वर्जित है। यदि कोई शूद्र वेद-मन्त्र सुन ले, तो उसके कानों में गला हुआ सीसा डाल देने का विधान है। परन्तु बौद्धों में ऐसे बन्धन न थे। उनमें कोई जाति-पाति की रुकावट न थी, न उनके पास कोई
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