बौद्ध काल का सामाजिक जीवन . करता था । नगर फाटकों पर चुंगी-घर थे। बाहर से आये हुये माल का व्यौरा वहाँ लिखा जाता था, और उनके माल पर मुहर लगाई जाती थी। चुंगी भिन्न-भिन्न वस्तुओं के लिये भिन्न थी। नगरों में अनेक उद्यान, बगीचे, बावड़ी, तालाब आदि हुआ करते थे । जातकों में 'सत्त भूमक-प्रासाद' (मतमंजिले मकानों) का वर्णन भी पाया है। विनयपिटक में स्नानागार ( हम्मामों) का उल्लेख है। जहाँ तेल मालिश करने और ठंडे तथा गर्म स्नानों का अच्छा प्रवन्ध था । जुाघर भी नगरों में होते थे । वेश्याओं की सम्भाल के लिये एक अफ़सर रहता था, जो गायिकाध्यक्ष कहाता था। नगर में 'शूना' बूचड़खाने भी थे। इसके अध्यक्ष शूनाध्यक्ष कहाते थे । 'होलिया' शराब पीने के अई भी थे। उन के खुलने वन्द होने के कड़े नियम थे। आबकारी का दारोगा 'सुराध्यक्ष कहाता था। नगर का अध्यक्ष 'नागरिक' कहाता था। इसका काम नगर की देख-भाल करना, प्रत्येक घर का आय-व्यय जानना, जन- संख्या जानना, पालतू पशुओं की संख्या जानना, सफाई रखना, आदि था। नगर के अधिकांश घर लकड़ी के ही थे। इसलिए आग लगने का डर रहता था। इसके लिए कई उपाय किये गये थे। नगर में एक भी छप्पर का घर न था । प्रत्येक दस घर के लिए एक कुआँ था। सड़क के दोनों ओर पानी से भरे हुए घड़े रक्खे रहते थे। प्रत्येक गृहस्थ को अपने घर नसेनी, रस्सी, कुल्हाड़ी और चमड़े ,
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