बुद्ध और बौद्ध-धर्म यवन यात्रियों ने लिखा है कि लोग प्रायः हाथियों, घोड़ों, ऊंटों और गधों पर सवार होते थे । सम्भव है, उस समय गधे को छूना आजकल की भांति निपिद्ध न समझा जाता रहा हो । इक्के इन दिनों भी चलते थे। हाथी या चार घोड़ों की गाड़ी पर चढ़ना बड़ी प्रतिष्टा का चिह्न था, यह आजकल की-सी ही वात देख पड़ती है। लोगों के घर लकड़ी और पत्थर दोनों के बनते थे, पर बड़े- बड़े घरों में भी नीचे का भाग पत्थर का और ऊपर का प्रायः लकड़ी का होता था। चून और ईंट से भी वरावर काम लिया जाता था। पत्थर और लकड़ी में कारीगरी भी बहुत दिखलाई जाती थी। साधारण लोगों के घर प्राय; एक मंजिल के होते थे, पर कहीं-कहीं सत्तभूपक प्रासादों (सप्तमूमिक प्रासाद ) का भी नाम आता है । जब महल सात मंजिल के होते होंगे, तो धनिकों के भी घर तीन-तीन, चार-चार मंजिल के होते ही रहे होंगे । जैसे आजकल शहरों में घरों के चारों श्रोर प्रायः उद्यान नहीं होता, वरन वह सीधी सड़क के दोनों ओर खड़े रहते हैं, वैसे ही उस समय होता था। सामने एक बड़ा फाटक होता था। भीतर जाकर बड़ा आँगन मिलता था, जिसके चारों ओर कोठरियों होती थीं। यदि इनके ऊपर दृसरी मंजिल न हुई, तो खुली छत होती थी। छत को उपरिपासादतल कहते थे। लकड़ी के घरों में भी खम्भों और सीढ़ियों के लिए पत्थर से काम लिया जाता था। ऊपर पेशों की तालिका में लानागारों के सेवकों का उल्लेख हुआ है। यह पेशा अब भारत में लुप्त हो गया, क्योंकि दिल्ली
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