बौद्ध-काल का सामाजिक जीवन 1 में लोग एकसाथ मिलकर रहते थे । घर एक-दूसरे से अड़े हुए होते थे । गलिये बहुत ही संकड़ी होती थीं। आमतौर से ३० से लेकर १०० कुटुम्ब तक एक ग्राम में रहते थे। गाँव कई प्रकार के होते थे। एक जनपद ग्राम कहलाता था, जोकि नगर के पास होता था । कुछ ग्राम प्रत्यन्त कहलाते थे, जोकि सीमा के पास होते थे। गाँव के चारों तरफ़ चरागाह होते थे । चरागाहों में सब लोग अपने-अपने पशु चरा सकते थे और अपनी जरूरत के माफिक लकड़ी काट सकते थे। गाँवों में जुताई व बोवाई एक साथ होती थी । जव खेत कट जाते तो उसमें पशु चरने के लिए छोड़ दिये जाते थे। लेकिन जब फसल रहती, तब पशुओं को ग्बाले ले जाते थे। फसल की सिंचाई के लिए पंच व मुखिया कुएँ, बावड़ी, तालाब- आदि खुदवाते थे और सबको पानी गाँव के मुखिया की देख-रेख में मिलता था। किसान अपने खेतों के चारों ओर मेंढ़ नहीं बनवा सकते थे, गाँव के कुल खेतों के चौत एक मेंढ़ होती थी। अंदर सब के खेत अलग-अलग थे । गाँव में सब कुटुम्बों का हिस्सा बराबर-बराबर था। मतलब यह है कि जितने कुटुम्ब होते थे,उतने ही हिस्से होते थे। फसल कटजाने पर हरेक कुटुम्ब अपना-अपना हिस्सा ले जाता था। कोई किसान अपनी जायदाद को नहीं वेच सकता था । यदि ऐसा मौका पड़ भी जाता, तो पंचों की इजाजत लेनी पड़ती थी। कोई किसान वसीयतनामा भी नहीं लिख सकता था ।
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