पृष्ठ:बुद्ध और बौद्ध धर्म.djvu/११४

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बौद्धों के धर्म-साम्राज्य का विस्तार और पूजा के लिए राजा ने पुजारियों को नियत किया था। जिस स्तूप में बुद्ध की कपालास्थि रक्खी थी, उसका दर्शन करनेवालों को एक स्वर्ण-मुद्रा देनी पड़ती थी । जो यात्री मोम आदि पर उस की प्रतिलिपि लेना चाहते थे, उन्हें ५ स्वर्ण-मुद्राएँ देनी पड़ती थीं। इसी तरह अन्यत्र भी फीस नियत थी, फिर भी यात्रियों की भीड़ सदैव बनी रहती थी। इनके विषय में चीनी यात्री हुएनसाँग ने लिखा है-ये पवित्र अङ्ग स्वर्ण-सिंहासन पर हिदा में रक्खे रहते हैं। वह महान् प्रख्यात् तीर्थ हिद्दा अब एक छोटा-सा ग्राम बन गया है। वहाँ एक छोटा-सा खेड़ा आबाद है। संघाराम और बिहार टीले हो गए हैं। हुएनसाँग ने गाँधार में बौद्ध-धर्म का ह्रास देखा था। गाँधार की राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी। पुरुषपुर, नगरहार और हिद्दा, ये तीन नगर कपिशर साम्राज्य के अन्तर्गत थे । वहाँ का सम्राट् क्षत्रिय बौद्ध था, जो प्रतिवर्ष बुद्ध की १८ फीट ऊँची चाँदी की मूर्ति बनवाकर वह उसकी पूजा किया करता था। उस समय एक मेला लगता था, और मोक्षमहा परिषद् नाम से बड़ी सभा होती थी। सम्राट कनिष्क गर्मी के दिनों में कपिशा नामक नगर में रहा करते थे। वहाँ, जिस जगह कि आज जलालाबाद आवाद है वहाँ पहले नगरहार नामक एक बहुत बड़ा शहर था। और वहाँ प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु दीपंकर ने अपनी तपस्या के बड़े-बड़े चमत्कार दिखलाये थे।