बौद्धों के धर्म-साम्राज्य का विस्तार था। इस प्रकार ५० वर्ष के अन्दर सारे कोरिया में बौद्ध-धर्म का प्रचार होगया। कुछ समय बाद एक प्रभावशाली बौद्ध-भिक्षु स्वयं कोरिया के राज-सिंहासन पर बैठा, इससे बौद्ध-धर्म का खूब प्रचार हुआ । इस भिक्षु-राजा ने यह नियम बना दिया था कि जिस किसी के तीन पुत्र हों, तो उनमें से एक को अवश्य बौद्ध- भिक्षु चना देवे। बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ-ही-साथ कोरिया में सदाचार, कला-कौशल और विद्या का भी खूब प्रचार हुआ । उस समय कोरिया की कोई निजी लिपि न थी, इसलिए चीनी लिपि में ही कुछ फेर-फार करके एक स्वतन्त्र कोरिया की लिपि बनाई गई। १४ वीं शताब्दि के अन्त में, कोरिया में एक बहुत भीषण राज्य-क्रान्ति हुई, जिसमें वहाँ की राजसत्ता चीन के मिंग राज- वंश में चली गई । यह राजा कानम्युशियन-मत को माननेवाला था। अतः उसने कोरिया में अपने मत का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया । इसलिए कोरिया में बुद्ध-धर्म का ह्रास होने लगा। आजकल कोरिया में बुद्ध-धर्म की बड़ी चुरी दशा है । कोरिया भी आज भारतवर्ष की तरह परतन्त्र है। इस समय वह जापान के आधीन है। वहाँ दरिद्रता और आलस्य का साम्राज्य है । जापान में बौद्ध-धर्म का प्रचार कोरिया से हुआ जापान का पुराना धर्म सिन्टो-धर्म है। छठी शताब्दि में, कोरिया के राजा ने जापान के राजा के पास अपना एक दूत भेजकर बौद्ध-धर्म की बड़ी भारी प्रशंसा की और उसके साथ ही कुछ बौद्ध-मूर्तियाँ
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