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(३४)

सीकड़न सोँ बँधो लाए एक अश्व विशाल,
जो निशीथ समान कारो, नयन जासु कराल,
झारि केसर रह्यो जो फरकाय नथुने दोउ,
पीठ सौ नहि जासु कबहूँ लगन पाया कोउ।
 
चढ्यो वापै नंद कैसहु गयो सो जब छेँकि,
दोउ पग सों भयो ठाढ़ो दियो वाको फेंकि।
रह्यो अर्जुन ही जम्यो कछु काल आसन मारि;
दियो चाबुक पीठ पै कसि बाग को झटकारि।

रोष औ भय सोँ भड़कि भाग्यो तुरग झुकि झूमि,
बहँकि कै फेरो लगायो खेत में वा घूमि।
कितु खीस निकासि सहसा फिर्यो काँधी मारि,
एड़ सोँ अर्जुन दबायो, दियो ताको डारि।

अश्वपाल अनेक एते माहिं पहुँचे आय;
बाँधि लीनो वाहि तुरतै लोह-सीकड़ नाय।
कह्यो सब "या भूत ढिग नहिं उचित कुँवरहिं जान,
हृदय आँधी सरिस जाको रुधिर अनल समान।"

कह्यो किंतु कुमार "खोलौ अब सीकड़ जाय;
देहु केसर तासु मेरे हाथ नेकु थमाय"।
थामि केसर कुँवर पुनि कछु मंद शब्द उचारि
दियो माथे पै तुरग के दाहिनो कर धारि।