अंत मंजु यशोधरा की ओर हेरि कुमार
बिहँसि बँची पाट की बगडार सहित सँभार,
कूदि कंथक पीठ तें आयो अवनि पै फेरि,
भुज उठाय विशाल या विधि कह्यो मब को टेरि-
"योग्य नहिँ या रत्न के जो योग्य सब सोँ नाहिँ;
आय ठाढ़ो हौ बरन की चाह धरि मन माहिँ।
कियो अनुचित आज साहस व्यर्थ हम यह धाय
सिद्ध याको करैं अब प्रतिपक्षिगण सब आय।"
धनुर्विद्या की परीक्षा हित प्रचार्यो नंद।
जाय राख्यो लक्ष्य षट् गो दूर पै सानंद।
वीर अर्जुन ने धर्यो निज लक्ष्य षट गो दूर;
नागदत्त सगर्व बढ़िगो आठ गो भरपूर।
पै कुँवर सिद्धार्थ ने आदेश दिया सुनाय-
'धरा मेरो लक्ष्य दस गो दूर ह्याँ ते जाय।'
गयो एती दूर पै धरि लक्ष्य सो जब जाय
दर्शकन को एक कौड़ी सो परसो दरसाय।
खैंचि शर तब छाँड़ि बेध्यो लक्ष्य नंद सँभारि।
वीर अर्जुन हू निसानो लियो अपनो मारि।
नागदत्त अचूक शर सोँ लक्ष्य कीनो पार।
पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/९४
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३०)