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लोह-सीकड़ सोँ नहीं जो भाव रोको जाय
कुटिल कामिनि-केश से सो सहज जात बँधाय"।

कह्यो नृप "यदि खोजि युवती करैं याको ब्याह;
प्रेम की कछु परख औरै औ निराली चाह।
यदि कहैं हम ताहि 'हे सुत! रूपउपवन जाय
लेहु चुनि सो कली जो सब भाँति तुम्हें सुहाय'

परम भोरो बिहँसि के सो बात दैहै टारि।
भागिहै आनंद सॉ जिहि सकत नहिं जिय धारि"

कह्यो दूसरो सचिव "नृपति यह समुझि लेहु मन,
तौ लौँ कूदत है कुरंग जौ लौँ शर खात न।
कोउ मोहिहै अवसि ताहि जानौ यह निश्चय
काहू को मुख ताहि स्वर्ग सम लगिहैं सुखमय।
रूप उषा सौं उज्वल कोऊ लगिहै ताको,
आय जगावति जो प्रति दिन सारी वसुधा को।
रचौ सात दिन में 'अशोक उत्सव', नृप! भारी
होयँ जहाँ एकत्र राज्य की सकल कुमारी।
बाँटै कुँवर 'अशोक भांड' सबको प्रसन्न मन
रूप और गुन करतब तिनके निरखै नयनन।
लै लै निज उपहार जान जब लगै कुमारी,
छिपि के देखत रहै तहाँ कोऊ नर नारी