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योँ कहि श्रीभगवान् एक जम्बू तर जाई
बैठे मूर्ति समान अचल पद्मासन लाई।
लागे चितन करन, महा भवव्याधि भयंकर!
कहा मूल है याको औ उपचार कहाँ पर?
उमगी दया अपार, प्रीति पसरी जीवन प्रति;
क्लेश निवारण को जिय में अभिलाष जग्यो अति।
ध्यानमग्न है गयो कुँवर यॉ मनन करत जब
रही न तन सुधि, आत्मभाव बहि गए दूर सब।
लह्यो चतुर्विध ध्यान तहाँ भगवान् बुद्ध तब,
धर्म मार्ग को कहत प्रथम सोपान जाहि सब।

पंचदेव तिहि काल रहे कहुँ जात सिधाए;
तिनके रुके विमान जबै तरु ऊपर आए।
परम चकित कै लागे बूझन ताकि परस्पर
"कौन अलौकिक शक्ति हमे बँचति या तरु तर?"
गई दीठि जो तरे पर भगवान् लखाई;
ललित ज्योति सिर लसत, विचारत लोक भलाई।
चीन्हि तिन्हैं ते देव लगे शुभ गाथा गावन-
"तापशमन हित मानसरोवर चाहत आवन;
नाशन हित अज्ञानतिमिर दीपक जगिहै अब
मंगल को आभास लखा है मुदित लोक सब।"

खोजत खोजत एक दूत नृप को तहँ आयो;