गोदि लकुट सोँ दीर्घविलोचन बैलन हाँकत।
जरत घाम में रहत धूरि वेतन की फाँकत।
देख्यो फेरि कुमार खात दादुर पतंग गहि;
सर्प ताहि भखि जात, मोर सो बचत मर्प नहिँ।
श्यामा पकरत कीट, बाज झपटत श्यामा पर;
चाहा पकरत मीन, ताहि धरि ग्वाय जात नर।
योँ इक बधिकहिँ बधत एक, बधि जात आप पुनि;
मरण एक को दूजे को जीवन, देख्या गुनि।
जीवन के वा सुखद दृश्य तर ताहि लखानो
एक दूसरे के बध को पट्चक्र लुकानो।
परे कीट तें लै मनुष्य जामें भ्रम खाई।
चेतन प्राणी मनुज बधत सा बंधुहिँ जाई।
भूखे दुर्बल कृषक बैल को नाधि फिरावत;
जूए सोँ छिलि जात कंध पै मनहिं न लावत।
जीबे की धुन माहिँ जगत् के जीव मरत लरि।
लखि यह सब सिद्धार्थ कुँवर बोल्यो उसास भरि-
"लोक कहा यह सोइ लगत जो परम सुहावन,
अवलोकन हित जाहि परसो मोकौँ ह्याँ आवन?
कड़े पसीने की किसान की रूखी रोटी;
कैसो कड़ुवो काम करति बैलन की जोटी!
सबल निबल को समर चलत जल थल में ऐसो!
ह्वै तटस्थ टुक धरौं ध्यान, देखों जग कैसो।"
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