लग्यो सारी सभा को यह उचित न्याय-विधान।
भई मुनि की खोज, पै सो भए अंतर्द्धान।
ब्याल रेंगत लख्यो सब तहँ और काहुहि नाहिँ;
देवगण या रूप आवत कबहुँ भूतल माहिँ।
दया के शुभ कार्य्य को आरंभ याहि प्रकार
कियो श्री भगवान ने लखि दुखी यह संसार।
छाँड़ि पीर विहंग की, उड़ि मिल्यो जो निज गोत,
और क्लेश न कुँवर जानत कहाँ कैसे होत।
कह्यो नृप एक वसंत के वासर "वत्स! चलो पुर बाहर आज
जहाँ सुखमा सरसाति घनी, धरती अपनी धन खोलि अनाज
बिछावति काटनहार समीप; चलो अपनो यह देखन राज
भरै नृप के नित कोपहिँ जो, चलि आवत पालत लोकसमाज।"
चढ़े रथ पै दोउ जात चले, बन, बाग, तड़ाग लसैं चहुँ ओर।
लसे नव पल्लव सोँ लहरै लहि कै तरु मंद समीर-झकोर।
कहूँ नव किशुकजाल सोँ लाल लखात घने बनखंड के छोर।
परै जहँ खेत सुनात तहाँ श्रमलीन किसानन को कल रोर।
लिपे खरिहानन में सुथरे पथपार पयार के ढूह लखात।
मढ़े नव मंजुल मौरन सोँ सहकार न अंगन माहिँ समात।
भरी छबि सो छलकाय रहे, मृदु सौरभ लै बगरावत बात।
चरैं बहु ढोर कछारन में जहँ गावत ग्वाल नचावत गात।
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