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(१५)

लियो तब खगकंठ को प्रभु निज कपोलन लाय
पुनि परम गंभीर स्वर सोँ कह्यो ताहि बुझाय
"उचित है यह नाहिँ जो कछु कहत है। तुम बात,
गयो ह्वै यह विहग मेरो, नाहिँ दैहौँ, तात!

जीव बहु अपनायहौँ या भाँति या संसार
दया को औ प्रेम को निज करि प्रभुत्व प्रसार।
दयाधर्म सिखायहौँ मैं मनुजगन को टेरि;
मूक खग पशु के हृदय की बात कहिहौँ हेरि।

रोकिहौँ भवताप की यह बढ़ति धार कराल
परे जामें मनुज तें ले सकल जीव बिहाल।
किंतु चाहै कुँवर तो चलि विज्ञजन के तीर
कहैं अपनी बात, चाहैँ न्याय धरि जिय धीर।"

भयो अंत विचार नृप के सभामंडप माहिँ।
कोउ ऐसो कहत, कोऊ कहत ऐसो नाहिँ।
कह्यो याही बीच उठि अज्ञात पंडित एक
"प्राण है यदि बस्तु कोऊ करौ नैकु विवेक;

जीव पै है जीवरक्षक को सकल अधिकार,
स्वत्व वाको नाहिँ चाह्यो बधन जो करि वार।
बधक नासत औ मिटावत, रखत रच्छनहार;
हंस है सिद्धार्थ को यह, सोइ पावनहार"।