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(१३)

इन्हैं ऐसी वस्तु कोऊ गुनत सो मन माहिँ
राजकुल में कबहुँ अनुभव होत जिनको नाहिं।

एक दिवस वसंत ऋतु में भई ऐसी बात,
रहे उपवन बीच सौँ ह्वै हंस उड़ि कै जात।

जात उत्तर और निज निज नीड़ दिशि ते धाय,
शुभ्र हिमगिरि-अंक में जो लसत ऊपर जाय।
प्रेम के सुर भरत, बाँधे धवल सुंदर पाँति
उड़े जात विहंग कलरव करत नाना भाँति।

देवदत्त कुमार चाप उठाय, शर संधानि
लक्ष्य अगिले हंस को करि मारि दीनो तानि।
जाय बैठ्यो पंख मैँ सो हंस के सुकुमार,
रह्यो फैल्यो करन हित जो नील नभ को पार।

गिर्यो खग भहराय, तन में बिंध्यो विशिख कराल;
रक्तरंजित ह्वै गयो सब श्वेत पंख विशाल।
देखि यह सिद्धार्थ लीनो धाय ताहि उठाय,
गोद में ले जाय बैठ्यो पद्म-आसन लाय।

फेरि कर लघु जीव को भय दिया सकल छुड़ाय,
और धरकत हृदय को योँ दिया धीर धराय।
नवल कोमल कदलिदल सम करन सोँ सहराय,
प्रेम सोँ पुचकारि ताकत तासु मुख दुख पाय।