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प्रकार किसी ने इसके महत्व की ओर ध्यान भी नहीं दिया। राजा साहब ने बहुत पुराने पड़े हुए, व्यवहार से उठे हुए और आजकल के कानों को भद्दे लगनेवाले सड़े गले शब्दों को छाँट कर ब्रज की बोलचाल का निखरा हुआ माधुर्य दिखाया। उन्होंने ब्रजभाषा की कविता को फिर जीता जागता रूप दिया। उनका मेघदूत हाथ में ले कर जो

"थक जायगी दामिनि तेरी तिया बड़ी बेर लौं हास विलास करे। टिक लीजियो रात में काहू अटा जहँ सोवत होय परेवा परे"

पढ़ेगा वह उनकी भाषा की सफाई और सजीवता पर मोहित होगा।

पंडित श्रीधरजी पाठक विद्यमान हैं जिनकी वाणी में ब्रजभाषा की जीती जागती कला जो चाहे वह प्रत्यक्ष देख सकता है-थोड़ा उनका ऋतुसंहार का अनुवाद आँखों के सामने लाए। ऐसी भाषा को देखते ब्रजभाषा को जो 'ऐतिहासिक' या 'मरी हुई' कहे उसे अपना अनाड़ीपन दूर करने के लिए दिल्ली भाड़ झोंकने न जाना होगा, मथुरा की एक परिक्रमा से ही काम चल जायगा।

काशी, रामनवमी रामचन्द्रशुक्ल
१९७९