(५४) .. पर न रह गया। शब्दालंकार की धुन रही । इससे च्युत- संस्कृति और ग्राम्यत्व दोष बहुत कुछ आ गया । भूषगा कवि तक "भूखन पियामन हैं नाहन को निंदतेः भनने में कुछ भी न हिचकं । "अपि माघ मपं कुर्यात् छन्दोभङ्ग न कारयंत' का भी उचित से अधिक लाभ उठाया गया। 'सु' की भरनी का तो कहना ही क्या है ! इधर सौ वर्ष में हिंदीगा में ग्वड़ी बालो चल रही है पर उसकी भी कई बार यही दशा होत होतं बची है। अभी बहुत दिन नहीं हुए बनारस के एक ज्योतिषी ने अपने गाँव में खूटा गाड़ कर उसे हिंदी भाषा का केंद्र ठहराया था और 'ने' के प्रयोग पर चकपका कर "सूतते हैं" की हवा बहानी चाही थी। पर यह न समझना चाहिए कि भाषा की परवा करनेवाले कवि हुए ही नहीं । रसखान और घनानंद ऐसे जीती जागती वाणी के कवियां को देखतं कौन ऐसा कह सकता है ? ब्रज- भाषा के कवियों में ज़बान का अगर किसी ने दावा किया है तो घनानंद ने । यह दावा दुरुस्त भी है- नेही महा ब्रजभाषा-प्रवीन औ सुंदरतान के भेद को जाने । भाषा-प्रवीन सुरूंद सदा रहै सो घन जू के कवित्त बग्वान ।। दूसरी प्राणपतिष्ठा काव्यभाषा या ब्रजभाषा का दूसरा संस्कार राजा लक्ष्मणसिंह द्वारा हुआ जिसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कुछ योग दिया। पर जिस प्रकार इन महानुभावों से यह काम अनजान में हुअा उसी
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