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(४६) परोक्ष रूप में। इसी प्रकार 'श्रावै, 'जायँ करै करिहै। 'चलौर जैसे आज ब्रज और अवधी दोनों में बोले जाते हैं वैसे ही सूर और तुलसी के समय में भी बोले जाते थे-'श्रावहिं', 'जाहिँ 'करहिं' 'करिहहि' 'चलहु' कोई नहीं बोलता था । जब कि एक ही कवि ने अपनी कविता में एक ही शब्द को दो रूपों में लिखा है जिनमें से एक रूप तो आजकल भी ज्याँ का त्यों है और दूसरा रूप अब नहीं है पर उस कवि से बहुत पहले भी मिलता है तब यह एक प्रकार से निश्चित है कि उसके समय की बोलचाल में पहला ही रूप था दूसरा रूप उसने प्राचीनों के अनुकरण में लिखा है। इसी प्रकार 'गयउ', 'भयउ', 'दीन्हेउ', 'लीन्हेउ', 'कियउ' इत्यादि अवधी के रूप नहीं हैं, पच्छिमी अपभ्रंश के पुराने रूप हैं जिनसे ब्रजभाषा के 'गयो', 'भयो', 'दीन्हों', 'लीन्हो', 'कियो', इत्यादि रूप बने हैं प्रथम पुरुप की भूतकालिक क्रियाएँ 'ओ' या 'औ(अ+उ) कारांत अवधी में नहीं हैं। अवधी में बहुवचन उत्तम पुरुष की सकर्मक भूतकालिक क्रिया और प्रथम पुरुष एकवचन की अकर्मक भूतकालिक क्रिया आकारांत होती है जैसे हम जाना,हम सुना, ऊ चला, घोड़ा दौरा, रावण हँसा इत्यादि । जहाँ पच्छिमी हिंदी की सकर्मक भूतकालिक क्रिया ली गई है वहाँ भी खड़ी बोली की तरह 'प्राकारांत' रूप रखा गया है, ब्रज की तरह ओकारांत नहीं, जैसे, राम कृपा करि चितवा जबहीं।-तुलसी । u 5