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ए आते हैं जैसे, जौन कुछ पावा तीन दै दीन । साहित्य की अवधी में 'ई' और 'ऊ' के स्थान पर 'यह', 'वह' अथवा 'सो' का प्रयोग अधिकतर मिलता है, उ८-~(क) मुनि न होइ यह निसिचर घोरा । (ब) तुइँ सुरंग मृरत वह कही-जायमी। पच्छिमी अवधी कारकचिन ग्रहण करने के पूर्व ब्रज के समान इनके रूप क्रमश: 'या', 'वा', 'ता'. 'जा' और 'का' कर लेती है, जैसे, जितिहहि राम न संमय या महँ। पर परवी या शुद्ध अवधी पुराने सामान्य विभक्तियुक्त रूप एहि, ओहि, तेहि, जंहि, केहि रखती है, जैसे, एहि कर, ओहि कर : एदि कॉ, ओहि काँ, जेहि कॉ, तेहि कॉ इत्यादि । रामायण, पद्मावत आदि में विभक्ति के रूप में अथवा वर्तमान, भविष्यत् और आज्ञा विधिसूचक क्रियापदो के अंत मे 'हि' 'हि' या 'हु 'हुँ-गमहि, उनहि. निनहि, जाहिं, करहिं, करिहहि, करिहि, करहु, चलहु-दंग्य कर लोग इन्हे अवधी का चिह्न समझा करते हैं। पर य प न तो बोल चाल की अवधी के हैं, न ब्रज के। यं प्राकृत या अपभ्रंश काल के रूप हैं जिनको कविपरंपरा रक्षित रखती आई है संज्ञाशब्दों से तो 'हि' विभक्ति के 'ह' को घिसे बहुत दिन हुए; सर्वनामों में यह कुछ बनी हुई है-जैसे, कारकचिह्नों के योग में 'एहि सन, ओहि मॉ, जेहि कर' आदि मे और ब्रज के 'जाहि, ताहि, वाहि' में प्रत्यक्ष रूप में और ब्रज और अवधी के इन्हैं, उन्हैं, जिन्हें तथा खड़ी बोली के इन्हें, उन्हें, जिन्हें में -