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, 9 सन जैसा पहले कहा जा चुका है अवर्धा की रुचि लवंत पदों की और रहती है इसी से वह भूतकालिक क्रियाओं के कुछ लध्वंत रूप भी रखती है जिन में लिंग, वचन और पुरुष कं विकार की गुंजाइश नहीं होती जैसे, कीन्ह, दीन्ह, लीन्ह, दीख, बैठ. लाग इत्यादि । उ०- (क) मैं सब कीन्ह ताहि बिनु पूर्छ (ख) मैं सब समुझि दीख मन माहीं। अवधी के कारकचिह्न इस प्रकार हैं: कर्ता- कर्म -- के, काँ ( पुराना रूप कह ) करण-से, संप्रदान -के, काँ (पुराना रूप कह) अपादान-से,ते संबंध-कै, कर (बोल चाल-'क') और कर अधिकरण-में, माँ (पुराना रूप महँ) और पर अवधी में संबंध के चिह्न तीन हैं 'के', 'कर' और 'कर'। इन में से 'के' और 'कर' में लिंगभेद नहीं है यद्यपि तुलसी दास जी ने 'के' या 'कइ' को स्त्रीलिंग के संबंध में नियत सा कर दिया है जैसे, जिन्ह कइ रही भावना जैसी। पर बोल- चाल में इस प्रकार का कोई भेद नहीं है। इतना है कि कर का प्रयोग सर्वनामों के आगे अधिकतर करते हैं जैसे, एकर, प्रोकर या यहि कर, वहि कर, इनकर, उनकर इत्यादि । अवधी