( ४३ ) उ०-(क) बंदनीय जेहि जग जस पावा । (ख) मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।। (ग) पारबती निरमयउ जेइ सो करिहै कल्यान । (घ) तेहि धरि देह चरित कृत नाना । (च) तेहि सब लोक लोक पति जीतं । (छ) जेइ यह कथा सुनी नहिं होई । (ज) जिन हरिभगति हृदय नहिं पानी। (झ) दुइ जग तरा प्रेम जेइ खेला । -जायसी (८) केइ सुकृती केहि घरी बसाए। कर्ता के पुरुष के अनुसार नियत अपने सकर्मक भूतका- लिक रूपों के अतिरिक्त सुबीते के लिए पच्छिमी हिंदी का पुरुषभेदमुक्त रूप भी साहित्य में रख लिया गया यह बात तो समझ में आ जाती है पर कर्ता का रूप अपभ्रंश प्राकृत या पृरबी अवधी का क्यों रखा गया यह भेद नहीं खुलता। अवधी पूरबी भाषा है अत: उसमें भूतकालिक सकर्मक क्रिया कारकचिह्न-रहित कर्म के अनुसार नहीं होती सदा कर्ता के अनुरूप होती है। जायसी ने शुद्ध अवधी का प्रयोग अधिक किया है अतः उन्होंने क्रिया का रूप पुरुषभेदमुक्त रख कर भी उसे अकसर कर्म के लिंग वचन के अनुसार नहीं बदला है- (क) भूलि चकोर दिहिटि तहँ लावा। (ख) कित तीतर बन जीभ उघेला। ग
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