और अध्यात्म, वे झेल रही हैं। उनके एकमात्र चिरंजीव प्रतापगढ़ के कुंवर श्रीरामसिंह- जी से मातामह राजा श्रीअजीतसिंहजी का कुल प्रज्ञावान् है । श्रीमती सूर्यकुमारीजी के कोई संतति जीवित न रही। उनके बहुत श्राग्रह करने पर भी राजकुमार श्रीउमेदसिंहजी ने उनके जीवन-काल में दूसरा विवाह नहीं किया । किंतु उनके वियोग के पीछे, उनके आज्ञानुसार कृष्णगढ़ में विवाह किया जिससे उनके चिरंजीव वंशांकुर विद्यमान है। श्रीमती सूर्यकुमारीजी बहुत शिक्षिता थीं। उनका अध्ययन बहुत विस्तृत था। उनका हिंदी का पुस्तकालय परिपूर्ण था। हिदी इतनी अच्छी लिखती थीं और अक्षर इतने सुन्दर होते थे कि देखनेवाला चमस्कृत रह जाता । स्वर्गवास के कुछ समय के पूर्व श्रीमती ने कहा था कि स्वामी विवेकानंदजी के सब ग्रंथों, व्याख्याने और लेखों का प्रामाणिक हिंदी अनुवाद में छपवाऊँगी। वाल्यकाल से ही स्वामीजी के लेखों विशेषतः अद्वैतवेदान्त, की ओर श्रीमती की रुचि थी। श्रीमती के निदेशानुसार इसका कार्यक्रम बांधा गया। साथ ही श्रीमती ने यह इच्छा प्रकट की कि इस संबंध में हिंदी में उत्तमोत्तम ग्रंथों के प्रकाशन के लिए एक अक्षय नीवी की व्यवस्था का भी सूत्रपात हो जाय। इसका व्यवस्थापत्र बनते न बनते श्रीमती का स्वर्गवास हो गया। राजकुमार श्रीउमेदसिंहजी ने श्रीमती की अंतिम कामना के लगभग एक लाख रुपया श्रीमती के इस संकर की पूर्ति के लिए विनि- योग किया। काशी नागरीप्रचारिणी सभा के द्वारा इस ग्रंथमाला के प्रकाशन की व्यवस्था हुई है । स्वामी विवेकानंदजी के यावत् निबन्धों के अतिरिक और भी उत्तमोत्तम ग्रंथ इस ग्रंथमाला में छापे जायेंगे और लागत से कुछ ही अधिक मूल्य पर सर्व साधारण के लिए सुलभ होंगे। इस अंथ- माला की विक्री की आय इसी अक्षय नीवी में जोड़ दी जायगी। यों श्रीमती सूर्यकुमारी तथा श्रीमान उमेदसिंहजी के पुण्य तथा यश की निरंतर वृद्धि होगी और हिंदी भाषा का अभ्युदय तथा उसके पाठकों का ज्ञान-लाम । श्रीचंद्रधर शर्मा
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