( ३७ ) पाय निमित्त करयो मन पावन । केशव । (ख) अंगद जो तुम पै बल होता। तो वह सूरज को सुत को तो?-केशव । (ग) जल भरन जानकी आई तीं। गोद ललन लै आई ती।-गीत। इसी 'भू धातु से बने भूतकृदंत को करणकारक का रूप देने से प्राकृत की 'हिंता' ( = से ) विभक्ति बनी है। इस बात का स्पष्ट आभास केशवदास जी ने दिया है-- सीतापद सम्मुख हुत गयों सिंधु के पार । विमुख भए क्यों जाउं तरि सुनौ, भरत, यहि बार । हुतें हुए से होने से । सूरदास जी ने इसका प्रयोग 'ओर से', 'तरफ़ सं' के अर्थ में किया है- श्रीदामा आदिक सब ग्वालन मेरे हुतो भेटियो । प्राकृत की 'सुंतो' विभक्ति की प्रतिनिधि “से ती” (= से) पुरानी खड़ी बोली में खुसरो और कबीर के बहुत पीछे तक थी- तोहि पीर जो प्रेम की पाका सेती खेल ।-कबीर । 'ओर से', 'बदले में' के अर्थ में भी 'संती' अवधी में अब तक बोला जाता है। खड़ी बोली में आज्ञा और विधि में जहाँ क्रिया का साधारण रूप रखा जाता है ( जैसे, तुम आना) वहाँ ब्रज- भाषा धातु में 'इयो' लगती है, जैसे, आइयो, जाइयो, करियो, इत्यादि। ,
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