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, '-व्रज० पुं० कर्त्ताकारक के स (= सु)का विकार है जोशौरसनी से आकर ब्रज के कर्ता और कर्म में देखा जाता है। संस्कृत में आकारांत पुं० शब्द तो इन गिने हैं। हिदी मे जो शब्द आकारांत हैं वे अधिकतर संस्कृत मे अकारांत थे, जैसे घोड़ा. पासा सं० घाटक, पाशक । कर्ता का रूप घाटकः = प्रा० ( बाड़ अ+3) घोड़ाः पाशकः = प्रा० ( पास+3 ) पास श्री: घोड़ा, पासा । इसी प्रकार भूत और वर्तमान कृदंत शब्दों के अंतिम 'त' का 'अ' हुआ और फिर उसमे 'उ' जुड़ कर 'ओ' हो गया । जैसे, चलितः = चलिअ+3= चलिर चल्यो । कृतः = कि+उ = किअउ = किया। गतः = गत्र या गय +3= गयउ = गया । कहने की आवश्यकता नहीं कि जिसे भूत-कृदंत-मूलक सकर्मक क्रियाओं का कर्म कहते हैं वह भी वास्तव में कर्ता ही है अत: उसका भी आकारांत होना ठीक ही है । भाषा के इतिहास की दृष्टि से ( चलते व्याकरण की दृष्टि से नही ) ऐसी क्रियाओं के कर्म में कार चिह्न लगाना ठीक नहीं है। स्वर्गीय बाबू बालमुकुंद गुप्त को यह 'को' नापसंद था। इस 'ओ' के नियम का अपवाद भी है। जैसे संस्कृत में स्वार्थे 'क' आता है वैसे ही हिंदी में 'डा', 'रा', 'श्रा', 'वा', आदि आते हैं । जैसे, खड़ी-मुखड़ा. बछड़ा; ब्रज और अवधी-हियरा, जियरा, अधरा, बदरा, अँचरा, अँसुवा, बटा, ( बाट), हरा ( हार ), लला ( लाल ), भैया ( भाई+श्रा), ना', ,