( ३१ ) प्रयोग किया ही है। पर उन्होंने जैसे 'करिबी' और 'स्यो का प्रयोग किया है वैसे ही अवधी 'कीन' 'दीन' 'केहि' (= किसने) का प्रयोग भी तो किया है। 'स्यो' का प्रयोग दास जी ने भी किया है जो ख़ास अवध के थे, यथा-स्यो ध्वनि अर्थनि वाक्यनि लै गुण शब्द अलंकृत सो रति पाकी । अतः किसी के काव्य में स्थान विशेष के कुछ शब्दों को पाकर चटपट यह निश्चय न कर लेना चाहिए कि वह उस स्थान ही का रहनेवाला था। सूरदास ने पंजाबी और पूरबी शब्दों का व्यवहार किया है । अब उन्हें पंजाबो कहें या पुरबिया ? उदाहरण लीजिए- "जोग-मोट सिर बोझ आनि के कत तुम घोष उतारी । एतिक दूर जाहु चलि काशी जहाँ बिकति है प्यारी"। 'महँगा' के अर्थ में 'प्यारा' पंजाबी है। अब पूरबी के नमूने लीजिए--- १(क) नेक गोपाले मोको दै री। देखौं कमलवदन नीके करि ता पाछे तू कनिया लै री ( ख ) गोड़ चापि लै जीभ मरारी । 'कनियां (गोद ) और 'गोड' (पैर) खास पूरबी हैं। डर है कि कहीं हिंदीवालों में भी लोग अपने गाँव के पास पुराने प्रसिद्ध कवियों की मूर्तियाँ खोद खोद कर न निकालने लगें। व्रजभाषा की कुछ विशेषताएँ खड़ी बोली की प्राकारांत पुं० संज्ञाओं, विशेषणों, और भूत कृदंतों का (विकल्प से वर्तमान कृदंतों का भी) ओकारांत होना ब्रजभाषा का सब से प्रत्यक्ष लक्षण है। यह संस्कृत के 9
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