(३०) की असली जगह पूरबी भाषाएँ ही हैं जो इसका व्यवहार भविष्यत् काल में भी करती हैं, जैसे -पुनि पाउब यहि बेरियाँ काली ।-तुलसी । उत्तम पुरुष ( हम करब, मैं करबौं) और मध्यम पुरुष (तूं करबौ, ने करवे ) में तो यह बराबर बोला जाता है पर साहित्य मे प्रथम पुरुष में भी बराबर इसका प्रयोग मिलता है यथा-(क) तिन निज ओर न लाउब भोरा ।-तुलसी । ( ख ) घर पटत पूछब यहि हारू ! कौन उतरु पाउब पैसारू-जायसी । पर ऐसा प्रयोग सुनने में नहीं प्राया। मध्यम पुरुष में विशेष कर आज्ञा और विधि में 'ब' में 'ई। मिला कर वज के दक्षिण से लेकर बुंदेलखंड तक बोलते हैं, जैसे, प्रायबी, करबी, इत्यादि । उ० -(क) यह राज साज समेत संवक जानिबी बिनु गथ लये । (ख) ए दारिका परिचारिका करि पालिबी करुनामई।-तुलसी । यह प्रयोग वजभाषा के ही अंतर्गत है और साहित्य में प्रायः सब प्रदेशां के कवियों ने इसे किया है-सूर, बोधा, मतिगम, दास यहाँ तक कि रामसहाय ने भी। जैसा ऊपर कहा जा चुका है जब साहित्य की एक व्यापक और सामान्य भाषा बन जाती है तब उसमें कई प्रदेशों के प्रयोग आ मिलते हैं । साहित्य की भाषा का जो व्यापकत्व प्राप्त होता है वह इसी उदारता के बल से । इसी प्रकार 'स्यो' (=सह, साथ ) शब्द बुदेलखंड का समझा जाता है जिसका प्रयोग केशवदास जी ने, जा बुंदेलखंड कं थे, किया है, यथा- "अलि स्यां सरसीरुह राजत है"। विहारी ने तो इसका
पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/३९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
( ३० )