(२८ ) कर्ता 'ने' चिह्न तो अवधी में आता ही नहीं । व्रज में उत्तम पुरुष का रूप 'नेलगने पर 'मैं' ही रहता है। ऊपर अवधी में प्रथम पुरुष का तीसरा रूप पृरबी अवधी का है। ब्रज में एक वचन उत्तम पुरुष हौं' भी आता है जिसमें कोई कारक- चिह्न नहीं लग सकता । वास्तव में इसका प्रयोग कर्ताकारक में होता है पर केशव ने कर्म में भी किया है, यथा-पुत्र ही विधवा करी तुम कर्म कीन्ह दुरंत । 'जाना' 'होना' के भूतकाल के रूप ( गवा, भवा) में से 'व' उड़ा कर जैसे अवधी में 'गा' 'भा' म्प होते हैं वैसे ही व्रज में भी 'य? उड़ा कर 'गो' 'भो' ( बहु० गे, भे) रूप होते हैं । उ०—(क) इत पारि गो को, मैया! मरी सेज प कन्हैया को ?-पद्माकर। (ख) सौतिन के साल भो. निहाल नंदलाल भो। मतिराम । खड़ी बोली करण का चित्र 'से' क्रिया के माधारण रूप में लगाती है; ब्रज और अवधी प्रायः भूतकालिक कृदंत में ही लगाती हैं, जैसे, बज. 'किए तें', अवधी 'किए सन' = करने से। कारकचिह्न प्रायः उड़ा भी दिया जाता है, केवल उसका सूचक विकार क्रिया के रूप में रह जाता है, जैसे, किए, दीने। क्रिया का वर्तमान कृदंत रूप ब्रजभाषा खड़ी के समान दीघीत भी रखती है, जैसे, आवतो, जातो, भावतो, सुहाती (उ०-जब चहिहैं तब माँगि पठेहैं जो कोउ आवत जातो :-- .
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