जायहै, पायहै, करायहै, दिखायहै (अथवा अयहै = ऐहै, जयहै = जैहै आदि) कहेंगे । इसी रुचिवैचित्र्य के कारण 'ऐ। और 'और का संस्कृत उच्चारण (अइ, अउ के समान) पच्छिमी हिंदी (खड़ी और ब्रज) से जाता रहा, केवल 'य'कार 'वा कार के पहले रह गया जहाँ दूसरे 'य' 'व' की गुंजाइश नहीं- जैसे, गैया, कन्हैया, भैया, कौवा, हावा इत्यादि में । 'और' 'ऐसार, 'भैंस' आदि का उच्चारण पच्छिमी हिंदी में 'अवर', 'अयसा', 'भयस' से मिलता जुलता और पूरबी हिंदी में 'अउर', 'अइसा', 'भईस' से मिलता जुलता होगा। ब्रज के उच्चारण के ढंग में कुछ और भी अपनी विशेष- ताएँ हैं। कर्म के चिह्न 'को' का उच्चारण 'काँ' से मिलता जुलता करते हैं। 'माहिँ, नाहिं, याहि, वाहि' आदि के अंत का 'ह' उच्चारण में घिस सा गया है इससे इनका उच्चारण 'माय', 'ना', 'याय', 'वाय' के ऐसा होता है। 'आवैगे', 'जावेंगे' का उच्चारण सुनने में 'आमैंगे' 'जामैंगे' सा लगता है। पर मेरी समझ में लिखने में इनका अनुसरण करना ठीक नहीं होगा। अवधी के साथ मेल और खड़ी बोली से भेद खड़ी बोली में काल बतानेवाले क्रियापद ('है' को छोड़) भूत और वर्तमान कालवाची धातुज कृदंत अर्थात् विशेषण ही हैं इसीसे उनमें लिंगभेद रहता है-जैसे, आता है = आता हुआ है =सं० आयान (आयान्त)। उपजता है= उपजता
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