का लिंग वचन भी कर्म के अनुसार होता है। पर और पूरबी
भाषाओं के समान अवधी में भी यह 'ने' नहीं है। अवधी के
सकर्मक भूतकाल में जहाँ कृदंत से निकले हुए रूप लिए भी गा
हैं वहाँ भी न तो कर्त्ता में करण का स्मारक रूप'ने आता है और
न कर्म के अनुसार क्रिया का लिंग वचन बदलता है। वचन के
संबंध में तो यह बात है कि कारकचिह्नमाही रूप के अतिरिक्त
संज्ञा में बहुवचन का भिन्न रूप अवधी आदि पूरबी बालियों में
होता ही नहीं; जैसे, 'घोड़ा' और 'सखी' का व्रजभाषा में
वहुवचन 'घोड़े' और 'सखियाँ' होगा पर अवधी में एकवचन
का सा ही रूप रहेगा; केवल कारकचिह्न लगने पर 'घोड़न'
और 'सखिन' हो जायगा । इस पर एक कहानी है। पूरब के
एक शायर ज़बाँदानी के पूरे दावे के साथ दिल्ली जा पहुँचे।
वहाँ किसी कुंजड़िन की टोकरी से एक मूली उठा कर पूछने
लगे "मूली कैसे दोगी ?” वह बोली "एक मूली का क्या
दाम बताऊँ ?" उन्होंने कहा "एक ही नहीं और लूंगा।"
कुंजडिन बोली “वो फिर मूलियाँ कहिए !"
अवधी में भविष्यत् की क्रिया केवल तिङन्त ही है जिसमें
लिंगभेद नहीं है पर ब्रज में खड़ी बोली के समान 'गा' वाला
कृदंत रूप भी है जैसे, श्रावैगो, जायगी इत्यादि ।
खड़ी बोली के समान ब्रज की भी दीर्घात पदों की ओर
(क्रियापदों को छोड़) प्रवृत्ति है। खड़ो बोली की प्राकारांत
पुं० संज्ञाएँ, विशेषण और संबंधकारक के सर्वनाम ब्रज में
पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
( २० )