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कह्यो "पूजन करत हैं। मैं नित्य उठि, भगवान्!
देव पितर मनाय चाहत आपनो कल्यान।"
कह्यो जगदाराध्य "अच्छत क्यों रहे बगराय?
दया प्रेम न क्यों पसारत सब जनन पै जाय?

मातु पितु को मानि पूरब कढ़ति जहँ सोँ ज्योति;
गुरुहि दक्षिण मानि जहँ सोँ प्राप्ति निधि की होति;
पुत्र पत्निहिं मानि पश्चिम शांति जहँ द्युतिमान्,
होत जहँ अनुराग के बिच दिवस को अवसान;

बंधु बांधव, इष्ट मित्रन को उदीची मानि
भक्ति, श्रद्धा, प्रेम अपनो तुम पसारौ जानि।
क्षुद्र जीवन पै दया तुम धरौ निज मन माहिँ;
यहै पूजन अवनि चाहति, और यह सब नाहिं।

स्वर्ग में जा बसत हैं सब देव पितर महान्
रखा तिनमें भक्ति, चहिए नाहिँ और विधान।
चलौगे या रीति पै जो गृही-जीवन माहिँ
होयगी रक्षा तुम्हारी, रहैगो भय नाहिँ।"

शिक्षा याही भाँति 'संघ' को अपने दीनी।
धर्मव्यवस्था प्रभु ने भिक्षुन के हित कीनी,

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