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कपिलवस्तु में बसि पुरजन परिजन समाज लहि
सारी निशि भगवान् करत उपदेश गए रहि।
काहू को वा रैन नीँद नयनन में नाहीँ
ऐसे सब ह्वै गए मग्न प्रभुबचनन माहीँ!
बोलि चुके जब बुद्ध भूप तब सम्मुख आयो,
चीवर माथे लाय विनय सोँ सीस नवायो।
बोल्यो "हे सुत!" सँभरि कह्यो पुनि योँ "हे भगवन्!
मोहू को लै लेहु 'संघ' में मानि तुच्छ जन।"
और सुन्दरी गोपा ह्वै आनंदमग्न तब
बोली प्रभु साँ "हे मंगलमय! राहुल को अब
देहु दया करि दाय मानि याको अधिकारी,
'उपसंपदा'*[१] गहाय करौ प्रभु याहि सुखारी।"
या प्रकार सोँ शाक्य राजकुल के तीनो जन
धर्ममार्ग में करि प्रवेश ह्वै गए शांतमन।



तथागत ने भाखि दीने धर्म के सब अंग।
पिता, माता, बंधु, बांधव, इष्ट मित्रन संग
चाहिए व्यवहार कैसो कह्यो सब समझाय
योँ गृहस्थ उपासकन को दियो धर्म बताय।
छोरि बंधन सकै इन्द्रिन के न जो तत्काल,
होयँ पाँव अशक्त जाके, चलै धीमी चाल।


  1. * बौद्ध लोग श्रमण या भिक्षु धर्म की दीक्षा को उपसंपदा कहते हैं।