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सबल सकत करि पार विकट गिरिसकट चटपट
कूदत फाँदत, गिरत परत गहि मारग अटपट ।
जे निर्वल ते पथ सुढार गहि चढ़ै सँभारत,
बीच बीच में टिकत और बहु फेरो डारत ।
ऐसा है 'अष्टांग मार्ग' यह अति उजियारो,
शांतिधाम के बीच अंत पहुँचावनहारो।
दृढ़ संयम संकल्प होत हैं जिनके, भाई!
पहुँचि जात ते जीव शीघ्र चढ़ि खड़ी चढ़ाई ।
पै निर्बल हू धीरे धीरे आशा धारे
चलत रहत यदि पहुँँचि जात कबहूँ बेचारे ।

पहलो 'सम्यक दृष्टि’ अंग या मारग केरो ।
राखि धर्मभय चलौ, पाप सोँ करौ निबेरो ।
मानौ कर्महि सार भाग्य उपजावनहारो ।
इंद्रिन को वश राखि विषयवासना निवारो ।
पुनि 'सम्यक संकल्प' दूसरो अंग सुहावै ।
सब जीवन को हित चित सोँ ना कबहूँ जावै
क्रोध लोभ करि दमन, क्रूरता मारौ सारी;
मृदु समीर सी जीवनगति ह्मै जाय तुम्हारी ।
'सम्यक वाचा’ अंग तीसरो मन में धारौ;
भीतर राजा बसत अधरपट समझि उघारौ ।