मोर; तेरो, तोर-जो छंद में बैठा रख दिया। प्राकृद आदि के
पुराने' शब्द बने ही थे। इस प्रकार काव्यभाषा के फिर एक
सामान्य और किंचित् कृत्रिम रूप प्राप्त करने की आशंका हुई।
इसमें अवध और बुंदेलखंड के कवियों ने विशेष योग
दिया। कृत्रिम प्राकृत का पदभापा-वाला लक्षण ( संस्कृत
प्राकृत चैव शूरसेनी तदुद्भवा । ततोऽपि मागधी प्राग्वत् पैशाची
देशजापि च । ) नए रूप में फिर से ताज़ा किया गया। 'दाम'
जी ने 'काव्यनिर्णय' में भाषानिर्णय भी कर डाला-
ब्रजभाषा भाषा रुचिर कहैं सुमति सब कोय ।
मिलै संस्कृत पारस्यों पै अति प्रगट जु होय ।।
ब्रज मागधी मिलै अमर नाग यवन भाखानि ।
मिलै षड़ विधि कहत बखानि ।।
सुनते हैं आजकल विहारवाले भी 'भाषानिर्णय कं
उद्योग में हैं और क्रियापदों से लिंगभेद का झंझट उठवाना
चाहते हैं। 'हिंदी-रचनाप्रणाली' पर पुस्तकें भी विहार हो
में अधिक छपती हैं। एक दिन एक पुस्तक मैंने उठाई । प्रारंभ
में ही लक्षणा के उदाहरण में मिला "तुम गधा हो। मैंने
'आकाशे लक्ष्यं बध्वा' वाक्य को ठीक तौर से दुहरा कर पुस्तक
रख दी। दास जी ने "ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही न अनुमानो"
कह कर मिलीजुली भाषा के लिए प्रमाण ढूँढ़ा कि-
तुलसी गंग दुऔ भए सुकविन के सरदार ।
इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार ।।
सहज पारसी
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