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देवगण जो करत नंदनवन वसंत-विहार
पूर्व पुण्य पुनीत को फल कर्मविधि अनुसार।

प्रेत ह्वै जो फिरत अथवा नरक मे बिललात
भोग सोँ दुष्कर्म को क्षय ते करत हैं जात।
क्षणिक है सब-पुण्यबल हू अंत छीजत जाय।
पाप हू फलभोग सोँ है सकल जात नसाय।

रह्यो जो अति दीन श्रम सोँ पेट पालत दास
पुण्यबल सोँ भूप ह्वैहै सो करत विविध विलास।
ह्वै परी वा बनि परी नहिँ बात ताके हेत
रह्यो नृप जो, भीख हित सो फिरत फेरी देत।

चलत जात अलक्ष्य जौ लौँ चक्र यह अविराम
कहाँ थिरता शांति तौ लौं औ कहाँ विश्राम?
चढ़त जो सो गिरत औ जो गिरत सो चढ़ि जात।
रहत घूमत आर थमत न एक छन, हे भ्रात!

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बँधे चक्र में रहौ मुक्ति को मार्ग न पाई
ह्वै न सकत यह-अखिल सत्व नहिं ऐसो, भाई!